
ट्रंप के दबाव के बावजूद भारत रूस से तेल आयात जारी रखेगा
नई दिल्ली, 3 अगस्त 2025 – ऊर्जा सुरक्षा और रणनीतिक स्वायत्तता को प्राथमिकता देते हुए, भारत ने यह स्पष्ट कर दिया है कि वह राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के नेतृत्व वाले अमेरिका के दबाव के बावजूद रूस से तेल आयात जारी रखेगा। इस सप्ताह भारतीय सरकारी अधिकारियों द्वारा दिया गया यह बयान यह दर्शाता है कि भारत अपने राष्ट्रीय हितों को कूटनीतिक दबाव से ऊपर रख रहा है, विशेष रूप से उस समय जब वैश्विक भू-राजनीतिक तनाव अमेरिका-रूस टकराव के कारण तेजी से बढ़ रहा है।
यह घटनाक्रम वैश्विक ऊर्जा राजनीति, आर्थिक यथार्थवाद और राष्ट्रीय संप्रभुता के बीच जटिल संतुलन को उजागर करता है, और यह दर्शाता है कि भारत एक बार फिर अंतरराष्ट्रीय कूटनीति में एक स्वतंत्र, गैर-पक्षपाती शक्ति के रूप में उभर रहा है। यह कदम भारत-अमेरिका संबंधों, वैश्विक तेल व्यापार, और बहुपक्षीय दुनिया में पश्चिमी प्रतिबंधों की प्रभावशीलता पर नए सवाल खड़े करता है।
ऐतिहासिक दृष्टिकोण: भारत की तेल कूटनीति
भारत, जो दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा कच्चे तेल का आयातक है, लंबे समय से अपनी ऊर्जा आवश्यकताओं के लिए विविध स्रोतों की नीति पर चलता आया है। बीते एक दशक में भारत की ऊर्जा मांग तेजी से बढ़ी है – शहरीकरण, औद्योगिक विस्तार, और तेजी से बढ़ते मध्यम वर्ग के कारण। इस बढ़ती मांग को पूरा करने के लिए भारत को सस्ती और स्थिर आपूर्ति की आवश्यकता है।
रूस, 2022 के बाद एक अहम आपूर्तिकर्ता बनकर उभरा, जब यूक्रेन युद्ध और उस पर पश्चिमी प्रतिबंधों ने वैश्विक तेल बाज़ार को हिला दिया। जब नाटो देश रूस से दूरी बना रहे थे, भारत ने रियायती दरों पर तेल खरीदने का अवसर देखा। इससे भारतीय रिफाइनरियों को राहत मिली और घरेलू ईंधन मूल्य नियंत्रण में रहे।
अब रूस, भारत के शीर्ष तीन तेल आपूर्तिकर्ताओं में शामिल है। भारत और रूस के बीच दीर्घकालिक अनुबंध, अनुकूल शिपिंग समझौते, और रुपया-रूबल व्यापार व्यवस्था जैसी व्यवस्थाओं ने इस साझेदारी को मजबूती दी है, जिससे भारत अमेरिकी प्रतिबंधों से अप्रभावित रह सका है।
ट्रंप की वापसी और नया दबाव
जनवरी 2025 में राष्ट्रपति ट्रंप की व्हाइट हाउस में वापसी के बाद से वैश्विक कूटनीति में एक बार फिर "अमेरिका फर्स्ट" नीति का बोलबाला है। ट्रंप लंबे समय से उन देशों की आलोचना करते रहे हैं जो अमेरिका के विरोधियों – विशेष रूप से चीन, ईरान और रूस – से आर्थिक लेन-देन करते हैं।
अप्रैल 2025 से अमेरिका ने भारत पर रूस से तेल आयात कम करने का दबाव बनाना शुरू कर दिया है। अमेरिकी सांसदों ने संकेत दिए हैं कि यदि भारत अपनी नीति नहीं बदलता तो उस पर द्वितीयक प्रतिबंध (secondary sanctions) लगाए जा सकते हैं – जैसे कि 2018 में ईरान पर किया गया था।
हालांकि, भारत के विदेश मंत्रालय ने स्पष्ट किया है कि:
“भारत अपने राष्ट्रीय हितों से निर्देशित होता है। ऊर्जा सुरक्षा हमारे लिए सबसे महत्वपूर्ण है, और हम अपनी संप्रभुता में बाहरी हस्तक्षेप को स्वीकार नहीं करेंगे।”
रणनीतिक स्वायत्तता और ग्लोबल साउथ का नेतृत्व
भारत का यह रुख उसकी रणनीतिक स्वायत्तता और ग्लोबल साउथ के नेतृत्व के दृष्टिकोण से भी जुड़ा है। कई विकासशील देश मानते हैं कि पश्चिमी प्रतिबंध असंतुलित होते हैं और इनका अधिकतर बोझ आम जनता को उठाना पड़ता है।
भारत ने G20, BRICS, और इंटरनेशनल सोलर अलायंस जैसे मंचों पर यह तर्क रखा है कि सस्ती ऊर्जा विकासशील देशों की आवश्यकता है, और प्रतिबंधों को इस वास्तविकता को ध्यान में रखना चाहिए।
भारत की विदेश नीति परंपरागत रूप से गुटनिरपेक्ष रही है – जो किसी एक महाशक्ति के पक्ष में नहीं झुकती, बल्कि बहुध्रुवीय विश्व व्यवस्था का समर्थन करती है।
आर्थिक पहलू: समझदारी भरा फैसला
आर्थिक दृष्टि से देखा जाए तो रूसी तेल ब्रेंट और WTI की तुलना में काफी सस्ता है। भारत के लिए, जो विकास के कई मोर्चों पर खर्च कर रहा है, यह बचत अत्यंत मूल्यवान है।
इंडियन ऑयल कॉर्पोरेशन (IOC) समेत कई सरकारी रिफाइनरियों को रूस से लंबी अवधि वाले अनुबंधों से लाभ हुआ है, जिनमें मूल्य लचीलापन, निरंतर आपूर्ति और स्थानीय मुद्रा में भुगतान जैसे विकल्प शामिल हैं।
पेट्रोलियम प्लानिंग एंड एनालिसिस सेल (PPAC) के मुताबिक, Q2 2025 में भारत के कुल तेल आयात का 38% रूस से आया, जो कि 2022 की शुरुआत में मात्र 1% था। इससे भारत ने करीब $14 अरब डॉलर की बचत की है।
पश्चिम के साथ संतुलन बनाए रखना
अमेरिकी दबाव को नकारते हुए भी भारत पश्चिमी देशों के साथ अपने संबंध बिगाड़ना नहीं चाहता। अमेरिका के साथ रक्षा, तकनीक, साइबर सुरक्षा और अंतरिक्ष अन्वेषण के क्षेत्र में सहयोग जारी है।
भारत ने कई अंतरराष्ट्रीय मंचों पर यूक्रेन युद्ध की आलोचना भी की है और शांति वार्ता का समर्थन किया है। इस प्रकार, भारत राजनयिक संतुलन बनाए रखने की कोशिश कर रहा है – आक्रामकता की निंदा करते हुए भी रूस को आर्थिक रूप से अलग-थलग नहीं कर रहा।
विश्लेषकों का मानना है कि बाइडन प्रशासन शायद इस मुद्दे पर अधिक संतुलित दृष्टिकोण अपनाता, लेकिन ट्रंप की वापसी से एक बार फिर कठोर नीति और दबाव की राजनीति वापस आ गई है।
घरेलू समर्थन और राजनीतिक सहमति
भारत सरकार के इस फैसले को सभी प्रमुख राजनीतिक दलों का समर्थन प्राप्त है। विपक्षी पार्टियाँ अन्य मुद्दों पर सरकार की आलोचना करती रही हैं, लेकिन ऊर्जा सुरक्षा और विदेश नीति पर एकरूपता दिखाई देती है।
जनता का भी समर्थन सरकार के साथ है। इंडिया टुडे द्वारा किए गए एक सर्वे के अनुसार, 71% भारतीय रूस से तेल आयात जारी रखने के पक्ष में हैं, क्योंकि वे इसे सस्ता, सुरक्षित और संप्रभुता-सम्मत मानते हैं।
एशिया और अन्य देशों पर प्रभाव
भारत का यह रुख दक्षिण एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमेरिका के अन्य देशों को भी प्रेरित कर सकता है। इंडोनेशिया, दक्षिण अफ्रीका और तुर्की जैसे देश पहले से ही डॉलर रहित व्यापार व्यवस्था की दिशा में कदम उठा रहे हैं।
इस संदर्भ में भारत न केवल अपने लिए राह बना रहा है, बल्कि एक नए वैश्विक ऊर्जा ढांचे की दिशा भी तय कर रहा है – जिसमें उभरती हुई शक्तियों की भागीदारी बढ़ेगी।
ऊर्जा संक्रमण और दीर्घकालिक दृष्टिकोण
कुछ आलोचक मानते हैं कि भारत को अब हरित ऊर्जा की ओर तेजी से बढ़ना चाहिए। सरकार यह स्वीकार करती है, लेकिन साथ ही यह भी स्पष्ट करती है कि ऊर्जा संक्रमण में समय लगता है, और तब तक सस्ती पारंपरिक ऊर्जा की जरूरत बनी रहेगी।
भारत ने सौर, पवन और हरित हाइड्रोजन ऊर्जा में भारी निवेश किया है और 2070 तक नेट-ज़ीरो उत्सर्जन का लक्ष्य रखा है। लेकिन फिलहाल तेल भारत की आर्थिक रीढ़ बना हुआ है।
निष्कर्ष: वैश्विक ऊर्जा राजनीति का निर्णायक मोड़
ट्रंप प्रशासन के दबाव के बावजूद भारत का रूस से तेल आयात जारी रखना वैश्विक ऊर्जा कूटनीति के लिए एक निर्णायक क्षण है। यह दिखाता है कि भारत आर्थिक यथार्थ, भू-राजनीतिक रणनीति, और राष्ट्रीय हितों को प्राथमिकता देता है।
यह फैसला सिर्फ भारत की नीति नहीं, बल्कि पूरी दुनिया में एक नई ऊर्जा और कूटनीतिक संरचना के संकेत देता है। आने वाले समय में यह देखा जाएगा कि क्या अमेरिका इस पर सख्ती बढ़ाता है, या नया संतुलन स्थापित होता है।
एक बात स्पष्ट है – भारत अपनी रणनीति अपने स्वाभिमान, विकास और वैश्विक नेतृत्व की भावना से ही तय करेगा।
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